संजीव जैन
"अच्छी थी, पगडंडी अपनी, सड़कों पर तो, जाम बहुत है!!
फुर्र हो गई फुर्सत, अब तो, सबके पास, काम बहुत है!!
नही बचे, कोई सम्बन्धी, अकड़,ऐंठ,अहसान बहुत है!!
सुविधाओं का ढेर लगा है यार, पर इंसान परेशान बहुत है!!\ud83d\udc9e
" गाँव "
Anupama Jain
तुम समझना हृदय की पीड़ा को,
यूँ ही किसी का तिरस्कार नहीं करना।
जो हो बस में तुम्हारे तो प्यार से समझाना,
न हो बस में तो चुप रह जाना,
पर किसी के बहते आँसुओं को ठेस न
देना।
क्योंकि शरीर पर लगी चोट तो ठीक हो भी
सकती है, लेकिन भावनाएँ जब अंतर्मन
तक छलनी हो जाएँ, तो फिर घाव नहीं भरते
और दर्द कम नहीं होता।